चुनाव
चुनाव कितना जरूरी है। जीवन के हर मोड पे हमें कुछ न कुछ चुनाव करना होता है। अक्सर पीछे मुड़कर कितने लोग अपने चुनाव को सही ठहराते है, या बस जीवन कि आपाधापी में फिर से मसगूल हो जाते है। जीवन में कई चुनाव बस एक काश छोड़ जाती है। कभी कभी तो अपने चुनाव पे यकीन नहीं होता। खैर मैं बात करना चाहता हूँ लोकतंत्र में चुनाव की। और बहुत संतुष्ट महसूस कर रहा हूँ इस बात के लिए कि इस बार चुनाव पे न के बराबर किसी से चर्चा की। वरना अपनी आदत से मजबूर कहीं बिना पेंदी के लोटे की तरह लड़ पड़ता। पक्ष वालों से विपक्ष के लिए और विपक्ष वालों से पक्ष के लिए। पर इसके पीछे मेरे मन में यही बात रहती है, कोई पूरा गलत तो नहीं होता न। कैसे किसी को पूरा सही या पूरा गलत मान ले। यह बात आम जीवन में भी लागू होती है।
फिर से अगर लोकसभा चुनाव पे फोकस करे तो मेरी समझ से यह चुनाव पिछले कई दशकों में सबसे निराशावादी चुनाव था, इसलिए नहीं क्यूंकि मैंने लड़ाई नहीं की। बल्कि इसलिए क्यूंकि पक्ष से विशेष उम्मीद नहीं और विपक्ष तो मानों है ही नहीं। पर कुछ आवाज ऐसे सुनने मिले, जिसने लोगो के मन में एक सवाल पैदा तो जरूर किया कि बिहार से सांसद तो ४० है पर इन्वेस्टमेंट सिर्फ गुजरात में क्यों। काबिल कोई भी हो पर नेता का बेटा ही नेता क्यों। ऐसे लोग उम्मीद तो जगाते है पर हमने ऐसे लोगो को पूरा पलटते भी देखा है। जो फिर यह सोचने को मजबूर करता है कि कोई पका हुआ आदमी जिसका कोई तो विचारधारा हो, देश के लिए वही शायद अभी के लिए ज्यादा जरूरी है। पर यह तो इस बात के विपरीत है कि लोग खुश होंगे तो देश खुशहाल होगा। पता नहीं, यह सवाल मैं आपके उपर ही छोड़ देता हूँ।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुख़र्जी ने ६७ गणतंत्र दिवस पर कहा था "There will be, amongst us, occasional doubters and baiters. Let us continue to complain; to demand; to rebel. This too is a virtue of democracy. But let us also applaud what our democracy has achieved."
इस लिए तमाम संकाओ के बाद भी, इस चुनाव का अच्छे से संपन्न होना, एक उपलब्धि है, देश के सभी नागरिको की। उसके विपरीत, मैंने चुनाव का कर्तव्य पूरा न करके और उसके ऊपर ज्ञान बाटके एक काश छोड़ दिया। पर आने वाले ४ जून को देश को फिर से एक अच्छा नेतृव्त मिलेगा इसका भरोसा रखे, क्यूंकि चुनाव तो हमने या हमारे ही अपनों ने किया है न।
फिर से अगर लोकसभा चुनाव पे फोकस करे तो मेरी समझ से यह चुनाव पिछले कई दशकों में सबसे निराशावादी चुनाव था, इसलिए नहीं क्यूंकि मैंने लड़ाई नहीं की। बल्कि इसलिए क्यूंकि पक्ष से विशेष उम्मीद नहीं और विपक्ष तो मानों है ही नहीं। पर कुछ आवाज ऐसे सुनने मिले, जिसने लोगो के मन में एक सवाल पैदा तो जरूर किया कि बिहार से सांसद तो ४० है पर इन्वेस्टमेंट सिर्फ गुजरात में क्यों। काबिल कोई भी हो पर नेता का बेटा ही नेता क्यों। ऐसे लोग उम्मीद तो जगाते है पर हमने ऐसे लोगो को पूरा पलटते भी देखा है। जो फिर यह सोचने को मजबूर करता है कि कोई पका हुआ आदमी जिसका कोई तो विचारधारा हो, देश के लिए वही शायद अभी के लिए ज्यादा जरूरी है। पर यह तो इस बात के विपरीत है कि लोग खुश होंगे तो देश खुशहाल होगा। पता नहीं, यह सवाल मैं आपके उपर ही छोड़ देता हूँ।
पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुख़र्जी ने ६७ गणतंत्र दिवस पर कहा था "There will be, amongst us, occasional doubters and baiters. Let us continue to complain; to demand; to rebel. This too is a virtue of democracy. But let us also applaud what our democracy has achieved."
इस लिए तमाम संकाओ के बाद भी, इस चुनाव का अच्छे से संपन्न होना, एक उपलब्धि है, देश के सभी नागरिको की। उसके विपरीत, मैंने चुनाव का कर्तव्य पूरा न करके और उसके ऊपर ज्ञान बाटके एक काश छोड़ दिया। पर आने वाले ४ जून को देश को फिर से एक अच्छा नेतृव्त मिलेगा इसका भरोसा रखे, क्यूंकि चुनाव तो हमने या हमारे ही अपनों ने किया है न।
असहिष्णुता
विचारों में मतभेद व्यवहार में शून्यता ला रही है। यह सोचकर सबसे पहले मुझे संसद और सांसदों की याद आती है। बाद में उन सभी साहित्य पंडितो और अभिनय कलाकारों की जो असहिष्णुता की बाते करते है। पर, वास्तविकता इससे परे है। अगर हमारे चक्षु खुले हो तो यह असहिष्णुता हमारे परिवार, समाज में पनप कर बड़ा आकार ले चुका है जहां विचारो में भिन्नता आपसी कटुता का कारण हो गई है। मुझे गांधीजी की याद आती है, नेताजी के विचारो से असहमत होकर भी बापू उन्हें प्रिय मानते थे। और नेताजी भी उन्हें "greatest Indian" कहकर संभोधित करते थे। ऐसा नहीं की उस समय असहिस्नु लोग नहीं रहे होंगे। हर कल खंड में ऐसे लोग होते है। पर उस समय मर्यादित पदो पे, घर के बड़े बुजुर्गो ने एक आदर्श स्थापित किया था। आज की राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य से तो आप अनभिज्ञ नहीं ही होंगे। क्योंकि सारी कमियों और बुराइयों की निरीक्षण और प्रसिस्क्षण करने की विलक्षण प्रतिभा तो हमने आदिकाल से संजोकर रखा है।
मूलतः मै पारिवारिक और निकटतम परिवेश में जकड़े हुए इस समस्या को highlight करना चाहता हूं। और पूरी ईमानदारी के साथ खुद को इसका हिस्सा और जिम्मेदार मानता हूं। पर शायद ये साझा करके हम और आप तनिक सोचेंगे और इस पर प्रकाश डालेंगे। अगर हम सहमत होंगे तो कोशिश करेंगे। इस अध्ययन में एक और महत्वपूर्ण बात आपसे साझा करना चाहता हूं। हमारा समाज, सरकार और सबसे महत्वपूर्ण परिवार ऐसी नीतियों पे काम कर रहा है जिसके पास "problem statement" नहीं है, सिर्फ है तो कृत्रिम नुस्खे। उदाहरण स्वरूप आज की शिक्षा व्यवस्था को ही ले लीजिए। मै उसकी गहराई में नहीं जाना चाहूंगा। पर मुझे इससे निष्कर्ष यह निकालना था कि हम जिस मूल समस्या की बात कर रहे है, उसके हल का एक मंत्र यह हो सकता है कि हम दूसरों पे विश्वास, उनके कार्य प्रणाली पे विश्वास करे। क्योंकि कोई भी सोच कर गलत नहीं करता, उसके अनुसार से वो सही ही रहा होगा। तो सबसे महत्वपूर्ण बात आती है बातचीत की, हां अटलजी वाली बातचीत। "Heated discussions" भी होनी चाहिए। पर, उसके बाद यदि साथ में खाना और गाना ही जाए बस फिर तो आनन्द ही आनन्द। और हां यही सही समय है बात करने की, अपने झूठे अहंकार को कुचलकर बातचीत करने की। इसको हम एक "progressive society, nation" के theory की तरह देख सकते है बशर्ते फूहड़ बाते और फब्तियां कसने के बाद कैंडल मार्च करने वालो से। हां पर उनसे भी मेरे वैचारिक मतभेद है, व्यावहारिक नहीं।।
मूलतः मै पारिवारिक और निकटतम परिवेश में जकड़े हुए इस समस्या को highlight करना चाहता हूं। और पूरी ईमानदारी के साथ खुद को इसका हिस्सा और जिम्मेदार मानता हूं। पर शायद ये साझा करके हम और आप तनिक सोचेंगे और इस पर प्रकाश डालेंगे। अगर हम सहमत होंगे तो कोशिश करेंगे। इस अध्ययन में एक और महत्वपूर्ण बात आपसे साझा करना चाहता हूं। हमारा समाज, सरकार और सबसे महत्वपूर्ण परिवार ऐसी नीतियों पे काम कर रहा है जिसके पास "problem statement" नहीं है, सिर्फ है तो कृत्रिम नुस्खे। उदाहरण स्वरूप आज की शिक्षा व्यवस्था को ही ले लीजिए। मै उसकी गहराई में नहीं जाना चाहूंगा। पर मुझे इससे निष्कर्ष यह निकालना था कि हम जिस मूल समस्या की बात कर रहे है, उसके हल का एक मंत्र यह हो सकता है कि हम दूसरों पे विश्वास, उनके कार्य प्रणाली पे विश्वास करे। क्योंकि कोई भी सोच कर गलत नहीं करता, उसके अनुसार से वो सही ही रहा होगा। तो सबसे महत्वपूर्ण बात आती है बातचीत की, हां अटलजी वाली बातचीत। "Heated discussions" भी होनी चाहिए। पर, उसके बाद यदि साथ में खाना और गाना ही जाए बस फिर तो आनन्द ही आनन्द। और हां यही सही समय है बात करने की, अपने झूठे अहंकार को कुचलकर बातचीत करने की। इसको हम एक "progressive society, nation" के theory की तरह देख सकते है बशर्ते फूहड़ बाते और फब्तियां कसने के बाद कैंडल मार्च करने वालो से। हां पर उनसे भी मेरे वैचारिक मतभेद है, व्यावहारिक नहीं।।