Harsh Kasyap [website in progress]

एक और साल

गंतव्य समझ नही आया ।
मंतव्य समझ नही आया ।
कर्तव्य समझ नही आया ।
एक और साल बीत गया ।।
जीवन समझ नही आया ।
एक और साल बीत गया ।।
दर्शन समझ नही आया ।
एक और साल बीत गया ।।
पिछले साल को जो मिला ।
इस साल को वो खो गया ।
साल दर साल सालो साल ।
बीतता रहेगा एक और साल ।।

मेरा शीशा ही बुरा है

मुझे जो जो मिले वो सब बुरे,
क्या इतना भोला भाला हूं मैं।
शीशे में दिखता है जो रंग मेरा,
है मासूमियत इंसानियत भरा।
फिर क्यों लोग इतने बुरे मिले,
हर रास्ते, चौक और नुक्कड़ पे।
क्या शीशा मेरा बुरा तो नही,
या सच में वो लोग ही बुरे थे।
मुझे लगता है मेरा शीशा ही बुरा है।

कम ही तो होना है

स्याही तभी खत्म हो जाती है,
जब ख्वाब बुनने लग जाते है |
यारी तभी ख़त्म हो जाती है,
जब बेबुनियाद होने लग जाते है ||
पुराने घरों की दरकती दीवारों से पूछो,
जिन्होंने कई कहानियाँ दबा रखी हैं |
नए घरों का है अपना ही मजा पर,
उनमें वो बचपन की शरारतें कहाँ हैं ||
जिंदगी एक-एक करके,
हर दिन कम ही तो होना है |
फिर कई जिंदगियां जी के,
हर रोज क्यों ज्यादा मरना है ||

समाज सिखाता है

समाज सिखाता है हमको कि कैसे शर्माना है |
फटे हुए बिस्तर को एक नई चादर से छुपाना है ||
समाज सिखाता है हमको झूठे रिश्ते निभाना है |
पर भूखे होकर भी सबरी ने जूठे बेर खिलाना है ||
समाज सिखाता है हमको कैसे आँसू बहाना है |
भाव मृत होकर भी मानवता का रूप दिखाना है ||
समाज सिखाता है हमको कैसे रंग चढ़ाना है |
रंग बदलते गिरगिट को भी कुछ सिखलाना है ||
पर यही समाज सिखलाता है संकल्पित रहना है |
मैली चादर ओढ़ के भी कर्तव्य मार्ग पर बढ़ना है ||

रात

मैंने जब भी पूछा रात से, खता मेरी क्या थी
मुड़ कर बोला उसने तेरी हैसियत क्या थी
चांदनी रात थी, शीतल मंद चले समीर थे
तुम भी थी, हम भी थे, वादा-ए-वफ़ा भी थे
Kufr और हिज्र अनायास मुकम्मल होती है
चांदनी रात भी देखो अब अमावस सी होती है

सफर

बिखरती कस्तियाँ फिर एक नई आवाज़ लगाती हैं।
संभल जाओ अब भी, ऐसा वो अक्सर बुलाती हैं।।
इस छोर या उस छोर, इंतज़ार बस तुम्हारा ही है।
मझदार में भी बार बार बस यही यकीन दिलाती हैं।।
नाविक भी मिला, अब तो एक उम्मीद सी जगी है।
खोया उसने भी है अपने, उसमे भी बस पीर बसी है।।
सफर न जानता रुकना, रास्तों का काम चलना है।
हर अगले मोड़ पर नए बासिंदों से रूबरू करना हैं।।
फिर और भी साथी मिले, संगम पे मिला जो प्रेम है।
बिछड़ कर आये यहाँ, हमारा मिलना एक संयोग है।।

प्रेम

प्रेम सुधा बरसाने वाली,
राधा वाली, मीरा वाली।।
प्रेम बिना शब्दों की डाली,
मुख मंजीर मनोहर बाली।।
प्रेम प्रफुल्लित पुष्पों की वाणी,
भौरें संग झंकृत हुई रागिनी।।
प्रेम प्रमोद परिणय परिणीति,
परिशुद्ध प्रणय और पावनी।।

भावनाओं का भ्रमजाल

भावनाओं का भ्रमजाल यही,
नितान्त सुखद आभास सही |
भौरें संग खिला जो फूल यही,
बिसरत मोती वो सीप सही |
मोहक गगन में इंद्रधनुष यही,
उठी अब सागर में तरंग सही |
कृष्णा की बांसुरी में धुन यही,
राधा भी सही, मीरा भी सही |
भावनाओं का भ्रमजाल यही,
सरल सहज अविरल सही ||

नव वर्ष

फिर भी नव वर्ष मुबारक हो।
अपने होली की रंगो से पहले,
कुहासे की चादर वाली सादी
सफेद खुशियां ही मुबारक हो।
फिर भी नव वर्ष मुबारक हो।।

घड़ी

हर उस घड़ी के बाद अब बेबसी लगती है।
एक और घड़ी तो अब फिसलती रहती है।।
वो घड़ी दो घड़ी ही मानो अपनी लगती है।
बाकी हर घड़ी उस घड़ी को तरसती रहती है।।

बचपन

बचपन हर बार मुझे उकसाता है,
फिर से तुम्हारे करीब लेकर आता है।
ये जीवन फिर क्यों बड़ा बनाता है,
और बस यादों का ख्वाब रह जाता है।

नेताजी

सिर के ऊपर से यूँ निकलते जहाज़, दीखते हैं हमें जो हर पांचवे ही साल,
गली में गूंजते हुए शोर और वादे, एक बार वो फिर से हमारे घर हैं आते |
पिछले बार के किये गए उनके वादे, ना ही अब जेहन में हमारे, ना ही तुम्हारे,
नयी समस्याएँ और इतने बुलंद इरादे, मानो फिर से अच्छे दिन हैं आने वाले |
कुर्ते में दाग नहीं, नेताजी अपनी बढ़ती सम्पति में दिखाते हैं सपना विकास की,
तबकी दफा वे आये थे स्कार्पियो से, इस बार सफारी के साथ और दो कार भी |
हल्ला है मोहल्ला में की चुनाव है सेवक का, यही है मौका की जनता मारे चौका,
वो दिखाते है सपना साथ रहने का अपना, देके हमको चूर्ण पीछे का सब भूलना |
थोड़ी शरारत क्या हमको नहीं करना, लेमंचूस खा खा के फिर पांच साल भुगतना,
सरकार नहीं है अपनी ये बार बार कहना, बोलो क्या तुमको है वापिस मूर्ख बनना |

चेहरे थे दस

इंसानी छेहरों पे यूँ तो लगे कितने ही हिजाब हैं,
लब्ज़ों पे है ख़ामोशी, और हकीकत पे नकाब है |
नयी पोशाकों में तो गज़ब का पर्दा है जनाब,
वो देखो, नेताजी ने पहने कपडे तो सफ़ेद है,
पर सच तो आखिर अंदर के बुरखे में कैद है |
विचार, विचारो की राजनीति, मानो तो अब,
सिर्फ कहानियों में रह गयी, उधर का छोड़ों अब तो,
घर में भी छोटी मोटी बातों पे झनझनाहट हो गयी है |
हर बार ख़ामोशी बुरी नहीं होती, खुद को चुभती भी है,
पर कैसे करेंगे हम तुम भी ये फर्क, की अच्छी या बुरी,
आखिर अपने चेहरे से भी तो हिजाब हटती ही नहीं है |
रावण के तो चेहरे थे दस, पर उसपे चढ़ा रंग एक ही था,
हमारे तो साहेब एक ही है, पर खोजो तो हर रंग मिलेगा |
इस बार की महामारी में भी एक अनोखी मिशाल पड़ेगी,
रावण तो जन्मेगा ही नहीं, और ना ही उसकी चिता जलेगी |
अपने अंदर में ही दशानन के साम्राज्य को पहचान लो,
बुलाओ हनुमान को और अंदर की लंका को जला लो |

आगे बढ़ना

एक मै भी चला जाऊंगा, फिर तुम और भी मोद मनाना।
मेरे पीछे की छोड़ी तस्वीर पर, एक अच्छा हार चढ़ाना।।
फ़ुरसत के खाली पन्नों पे, पलट पलट एक सादी तस्वीर।
कुछ मत लिखना और पढ़ना, रखना उसको कोरी चिट।।
मरहम वक़्त लगाएगा, बेवजह जो गम कभी सताएगा।
समय की भी सुई भागेगी, नई खुशियां जल्दी आएगीं।।
यादों की अस्थि कलश को तुम, गंगा में ऐसे बहा देना।
समेट लाना कुछ गंगाजल, घर को वापिस नहला देना।।
हर बरसी को मै आऊंगा, मिलकर कुछ मोद मनाऊंगा।
बस इतनी ही यादे रखना, बाकी बस फिर आगे बढ़ना।।

सेवा में स्वार्थ

स्वार्थ में ही याद निहित है, सेवा में उपकार निहित है।
परोपकार में चाह निहित है, परिस्थिति निमित्त है कर्म।।
उदर की पीड़ा में भी तो, नवजीवन की चाह निहित है।
और निमित्त है मेरा जीवन, ईश्वर की उपकार निहित है।।
भू-सेवा में भूख निहित है, गो-सेवा में धर्म निहित है।
देश-सेवा में शौर्य निहित है, प्रेम निमित्त है सत कर्म।।
क्रोध में भी लोभ निहित है, या और निहित है दुर्बलता।
तृष्णा निमित्त है जीवन, और त्रुटि में भी रूचि निहित है।।
पूजा में श्रद्धा निहित है, या और निहित है परम्पराएँ।
सच्ची भक्ति में मुक्ति निहित है, रघुबर प्रेम निमित्त है।।

कल मैं रहूं ना रहूं

ख़ुशी के आस आस में, क्यों तू गम के पास पास है, आखिर ये भी कोई बात है |
घड़ी दो घडी पर है तेरी मंजिल खड़ी, फिर भी क्यों तू बेवक़्त इतना खामोश है ||
पास होने पे, साथ होने से, तू परेशान है, अलग है तेरी मंजिल, फिर भी हैरान है |
कल मैं रहूं ना रहूं, याद में भी तेरे, मुझको पाकर भी हाशिल, नहीं कुछ अब है ||
रास्ते पे मिली है ख़ुशी जो तुझे, घर आने पे फिर क्या ये सितम हो रही है |
रास्ते को ही जो तूने घर कर लिया, फिर तो तेरी मंजिल महफ़िल में सजी है ||

सबल मनुष्य

जीत कर, हार कर, और सम्यक विचार कर,
स्थिति वश, परिस्थिति से विवश, निरंतर अपना काम कर।
ठोकरें तो है खड़ी, पर ठेस की तू परवाह न कर,
निज पथ पर खड़ा अडिग, अपना मार्ग प्रशस्त कर।
भावनाओं की जंजीरों से आजादी का मोल ना कर,
कुछ मेहनत और मजदूरी से दो रोटी का प्रबन्ध तू कर।
रोते वही, और शोक मनाते, जिनको दुख का है अधिकार,
सबल मनुष्य तो किया करते है, औरों के भी दुख का प्रतिकार।
ये खेल मदारी और जमूरे का लगता है दिलचस्प बड़ा,
अभिनय करते कलाकार सभी, तू अच्छे से अपना किरदार निभा।

सबल के होत है सब सहारे रे

सबल के होत है सब सहारे रे, दुर्बल के निज होत ना कोए।
पहले तो लोग सब आवत रहे, अब तो मोरा केहू भेट ना होए ||
निज शक्ति तोहार अपन सम्पति, बाकी सब भ्रम के जाल भये |
सखा समाज दूर तू छोड़आ, तोहार घर में भी कोई साथ ना होये ||
कभी सपनो में हमार आवत नहीं की मुँह में जाब लगावे के होये |
दोसरे के छोड़ देहेब, रउवा अपने हाथ बेरो बेर मिलावे के होये ||
अब तो कछु कछु मोहे रास ना आवे, पर कछु मोहे अति सोहाय |
पहले से जो विचलित मना मेरो, अब धीरे धीरे शांत भयो रे जाये ||
सार इस संसार का, कभी लगयो अति मोरे, तू करयो जिसपे भरोशे |
वो जिन्दा तो अब छोड़े दियो, तोरे मरणो पर भी कोई नहीं जइहो रे ||
हम ठेला और पलटिफार्म पे, गरीबन से मोल झोल करत नजर आये |
वही अमेज़न और फ्लिपकार्ट पे क्रेडिट कार्ड से उधार चुकावत जाये ||
सबल के होत है सब सहारे रे, दुर्बल के निज होत ना कोए।
अमीरन के ही भीख मिले, मजदूरा भूखो पेट ही सोये रे ||

चुस्की चाय की

तेज बारिश है, और चमचमाती आसमां।
थिरकते हुए पेड़, और मिट्टी दी सोंही खुशबू।।
मर्ज इसके भी है बहुत, है किसी के लिए मोती,
तो किसी के लिए बुरे सपने, और रात काली।
एक छत के नीचे सोफे पे बैठे,
लेते पकोड़े और चुस्की चाय की।
दूसरा भीगता हुआ बचाता अपनी झोपड़ी,
कुछ फटे कपड़े और राशन दो चार दिन की।।
नेताजी ने बैठ कबूतरखाने में एक लंबा फरमान दिया,
डूबते हुए फसल पे रोते किसान को चुप रहने का इनाम दिया।
यूं गर्मी से राहत तो मुझे भी मिली,
पवन ने चूमे और साथ में कुछ बूंदे सही।
आंखो को मिली एक मोहक छवी,
मन को भी थोड़ी शीतलता सही।।

अगस्त की वही पहली इतवार

आज अगस्त की पहली इतवार है,
मौसम उसी साल की तरह बेमिसाल है |
इस दिन, आह उस दिन का वो सफर,
वो रास्ते, रास्ते में भुट्टे और झालमुरी |
आज भी मुझे याद है, मानो तो आज,
अगस्त की वही पहली इतवार है |
हर साल दर साल इसी इतवार,
लगभग याद है मुझे करीब सात आठ साल |
भूसी डैम से लोहगड का पहाड़,
पुणे हो या बम्बई, लोनावला जाते थे हर बार |
घर पे बैठ, डिजिटल हुआ है अब,
इ लगा के थोड़ा मजबूर हुआ है सब |
खैर इस बार नहीं, तो और सही,
अगली बार मिलेंगे किसी ठौर सही |
और बहुत यादे है पहले और बाद की,
पर यही कहानी अच्छी है,
अगस्त की पहली इतवार की |

मौसम ने कुछ फिसलन बढ़ा दी है

ख्वाबों के दरवाज़े पे तुम्हारी दस्तक को इस कदर रोक रखा था मै,
जैसे आज तुम किसी अपने के घर जाओ, और वो बोले बस दूरी बना रहा था मै।
मेरे पलको के आगे के रेशेदार बालों में अपने आंसुओ को फंसा रखा था मै,
जैसे ओश की बूंदों से बांस के पत्ते ने कहां तुम्हे मोती की तरह सजा रखा था मै।
चहक तुम्हारी सुनने के इंतजार में, अपने कान खड़े कर रखा था मै,
अलबत्ता तुम ही वफादार निकले, कब से चोर बना फिर रहा था मै।
अब रुकता हूं यहां पर मै, अगली गली में मुड़ता हूं,
जिधर है तुम्हारा ठिकाना वहां नहीं अब मै ठहरता हूं!
अमीरी ने गरीबी का, मासूमियत ने इंसानियत का, मुक्कदर ने सिकंदर का रास्ता बदल दिया,
पर ना हौसला टूटा, ना ही मानवता शर्मशार हुई, ऊल्टे समय ने राजा और रंक बदल दिया।
हां नए पक्के रास्तों पे बदलते मौसम ने कुछ फिसलन बढ़ा दी है,
जिस तरह से नए संचार माध्यम ने अब लोगों में दूरी बढ़ा दी है।
कीचड़ में गिरने पे टूटने का डर तो न था, मिट्टी के पके बर्तनो में सुगंध गजब था,
कांच से ढके और धागे से बंधे रिश्ते में आये खालीपन तो देखो, मै हूँ यहाँ पर व्यस्त कहीं था।
इस साल बारिश की बूंदो को नजदीक से देखा, बचपन की मस्ती को रिपीट किया,
वो सब जो कभी छूट गया था कहीं, इस महामारी में उसे समेट कर करीब किया।
एक रेडियो, कुछ किताब, कुल्हर वाली चाय और मेरे दोस्तों की टोली,
नई गली में एक बगीचा, उस ठौर छांह ढुंढ बैठ होती कुछ हंसी और ठिठोली।
यही मेरा संगम, छोटी सी है झोली,
और मेरे जीवन की हस्ती खिलती रंगोली!

लाचारी, बीमारी और हैरानी

जो बात इसारो मे ना समझी गयी, तो चुप रहना बेहतर,
वक़्त के साथ आदत बदल गयी, तो उसमे ढलना बेहतर |
बीते दिनों, महरूम रहा, मरहम भी न मिला जख्म भरने को,
इतिहास पलट कर देखो, घाव भर जाते है, छोड़ दो पकने को |
एक मुद्दत हुआ, दिल खोल कर हसने और ठहकने को,
जिसे सजाया था मैंने, आज पाबन्दी है उसे ही छूने को |
आँख भर गयी है अब, पूछता हूँ ये कुर्बानी, ये बेमानी क्यूँ,
बेअसर है हर मर्ज़, इतनी लाचारी, बीमारी और हैरानी क्यूँ |
लौट जा ये वक़्त, उम्मीद में कहीं इतिहास ना बन जाऊं,
एक बार रौशन कर, उम्मीदे जगा, नया वर्तमान बनाऊ |

हड़बड़ी में हादसा

हड़बड़ी में हादसा हो गयी,
रास्ते में मौत से वास्ता हो गयी |
खचाखच बस और ठूसमठूस ट्रक में,
चलते हुए रास्ते में टक्कर हो गयी |
हड़बड़ी में हादसा हो गयी,
भूख से, प्यास से, तंगी हाल से,
भरी दोपहरी में सूरज की ताप से,
रास्ते में जिंदगी दो चार हो गयी |
हड़बड़ी में हादसा हो गयी,
सरकार बदहजमी की शिकार हो गयी,
देश को महफूज़ करने में,
कई साँसे रास्ते पे बेहाल हो गयी |
हड़बड़ी में हादसा हो गयी,
२ महीने के बच्चे के साथ,
माँ रास्ते पे खड़ी हो गयी,
बिना राशन, बिना पानी दोपहरी हो गयी |
हड़बड़ी में हादसा हो गयी,
ना मास्क, ना दुरी, ना जाँच-पड़ताल,
महामारी से पहले, भुखमरी से बचने के लिए,
रास्ते पे चलना लाचारी हो गयी |

हिंदी में अंग्रेज़ी मीडियम

लोग आएंगे जाएंगे, यादों में रह जाएंगे।
उनमें से तुम जैसे बार बार याद आएंगे।।
हमारी शक्सियत तो एक ही है,
पर तुम्हारे तो किरदार भी अनेक है।
कुछ तो हासिल है, बहुत जज्बा है।
चटपटी हिंदी में अंग्रेज़ी मीडियम है।
सच तो है कि दुखी आज नहीं मै इतना,
पर हां पर्दे पे तुम्हे दुबारा देखने की कसक रह जाएगी।

दर्द नहीं वो जाम था

दर्द जब तक छुपा था,
दर्द नहीं वो जाम था,
दर्द जबे सरेआम हुआ,
वो बिन गुठलियों के आम था।
छुपता है दर्द वही तेरे सीने में,
मजा देता है सिसकियां लेने में।
जैसे ही किया तूने चर्चा इसका,
लोग लगे रहे तेरा मजा लेने में।
मै बताऊं तुमको,
दर्द उसे भी जब हुआ था,
तुमने तसल्ली दी थी,
पर पीट कर ढोल,
बजा बाजे उसे कुरेदा था।
वक़्त लेती है करवट,
वक़्त लेती है करवट।
दर्द तुमको हुआ अब,
दर्द तुमको हुआ अब।
मौका मौका, मौका उसे मिला अब,
तस्सली उसने भी दी तुमको,
पर नगाड़े ढोल तासे भी पीटा।
सिलसिला है ये दर्द का चलता रहेगा,
आंसू तेरे नैनो पे यूं छलकता रहेगा।
बांध इसको तू, मोती हैं ये तेरे,
वरना धीरे धीरे ये व्यर्थ बहता रहेगा।
दर्द जब तक छुपा था,
दर्द नहीं वो जाम था,
छुपा कर रख उसे सीने में,
वही तेरा रहबर वही तेरा राम था।

जिंदगी

जिंदगी हर रोज कुछ नया सिखाती है,
जब सब साथ होते है तभी अकेलेपन की चाह सताती है,
और जब कोई नहीं होता तो अपनों की याद सताती है।
इस महामारी ने लोगो के कई रूप दिखा दिए,
कुछ को अपना तो कुछ को पराया बना दिए।
हे खुदा, तू तो कल भी था, आज भी है,
जीवन कल भी था, आज भी है,
बाकी लोग जो कल थे, उसमे से कुछ अब नहीं,
कल तो कोई और होगा, उसका अभी परवाह नहीं।
ऐसे ही आगे चलते रहना होगा,
शायद वक़्त को ही अपना साथी समझना होगा,
बार बार जिंदगी से लोहा लेकर अपना मार्ग प्रशस्त करना होगा।
आओ मिलकर स्वीकार करे,
सबका हृदय से आभार करे।
जिस मिट्टी ने सृजन किया गांधी बोस आज़ाद को,
इस मिट्टी के लाल तुम्हे भी सौगंध उसी बलिदान को,
कदम मिलाकर चलने को, आगे आगे बढ़ने को।

रोटी कपड़े और मकान

जिंदगी अरे किस मोड पे ले आया है तू,
मुझे घर और उनको शहर छोड़ आया है तू।
भले ही मुझे अभी तक है सारी जरूरतें नसीब,
पर बेबस है बेचारा इन सबको पहुंचाने वाला रकीब।
बहुत कानून पढ़ते है हम पढ़ने वाले,
अक्सर देखा है मैंने हममें से ही इनसे खेलने वाले।
घर आराम से पहुंचकर हम अपने,
सोफे पे बैठे आसानी से कहते
तुम मत लाना घर बीमारी अपने।
कुछ मजबूरियां थी उनकी
रोटी कपड़े और मकान की,
वरना कहां जरूरत थी
उनको टिकट ट्रेन और फ्लाइट की।
मै भी चारपाई पे जाल लगाकर लेटा,
सोच रहा कितने तफरी में होंगे मेरे इस जमीन के बेटा।
वो गली का राहुल, सोनू क्या भेजेगा घर को,
कहां वो तो खुद परदेश में ढुंढ रहा घर रहने को।
रूबी कल पूछ रही थी अम्मी से खाना,
जो पहले ही साैहर को बोल चुकी है मत आना।
व्यथित आत्मा, करुण चेतन, पीड़ित है मेरा अंतर्मन,
हाथ धरे, आराम से बैठा, और पीड़ा सहते मेरे अपने जन।

कहीं खुद को छोड़ आया है तू

लड़ते झगड़ते खुद से खुद को ही भूल आया है तू,
और ढूंढ़ते हुए सहारा, कहीं खुद को छोड़ आया है तू।
सोच लिया था गलत, खुद से ज्यादा, औरो पे हक,
और फिर औंधे मुंह गिर पड़ा जब पता चला बेवक्त।
अब तो क्या सच, क्या झूठ, वाकई नहीं बता सकता,
उसका क्या अपना पता भी ठीक से नहीं बता सकता।
इसमें सच था भी नहीं कुछ वैसे, फैशन था दरअसल,
हां वही, जो दिखता है पर खुद को छिपा देता है असल।
अगल बगल देखो, कुछ भी स्थिर या प्रामाणिक है क्या,
तिनके से तुम और हम, फिर भी तार से हमारी बयां।
और हां एक और अनुभव की बात सुनो ध्यान से,
करोगे जितनी जल्दी मिलोगे उतने ही होशियार से।
अब तो यही लगता है, रुक भी जाओ, धीरे चलो साथ में,
अरे थोड़ा तो मुस्कुराओ, थोड़ी सी हसीं और हलचल दिखाओ।
दौड़कर, भागकर, किसी को गिराकर, यूं पहले पहुंच भी गए तो क्या,
दुनिया शायद याद भी रखे, खुद को जवाब दोगे भला क्या।।

मेरा सच आपको भी तो अब एक किस्सा लगता है

वो जो मेरे खास है, वह नहीं अब मेरे पास है।
कहने को तो और बहुत है मेरे करीब,
फिर भी ना जाने क्यूं एक कमी का एहसास है।।
और वो जो मेरे खास थे, मै भी उनका खास था।
अलबत्ता वो तो अब खामोश हो गए,
बचा उनका एहसास ही तो है, उन मीठी यादों के साथ।
खैर खुशी है मुझे, खुद को बांधने का साहस जुटा रहा हूं।
सब कमियों के साथ आपके बीच मुस्कुराता नजर आ रहा हूं।।
बहुत नगमे, अफसाने और ना जाने क्या क्या दिखाए इस जींदगि ने।
हस्ते हुए गम और सच छुपाना सीखा दिया है इस जींदगि ने।।
अब तो आपके सामने भी कुछ कहने से यूं डर लगता है।
मेरा सच आपको भी तो अब एक किस्सा लगता है।।
फोटो में छिपी इस दुनिया के पिछे भी एक दुनिया है।
वह निर्विकार दुनिया ही तो है जो कि मेरा सच है।।
वो सच बहुत खूबसूरत है, और उस सच के साथ जो लोग है।
वही तो मेरे खास है, सदा मेरे पास है, सदा मेरे पास है।।